Wednesday, December 23, 2015

अश्रुओं का प्रभाव

जब मेरी दादी पड़ी बीमार, जी चुकी थी वह पच्चासी साल,
जितने डॉक्टर मिले दिखाए, फिर भी कोई न मिला उपाए,
न शुगर, न बीपी, न कोई ऐसा रोग जो बुढ़ापे को मुश्किल बनाये,

उनकी हालत बहुत ख़राब थी, बदन शिथिल अत्यंत कमजोरी,
लेटे रहने से पीठ पे घाव, बीच बीच में कोमा में जाना, और न ही दिखे कोई उपाय।

आखिर वह दिन आ ही गया जो की हमें पता था की आना है,

मेरी बुआ रोई, क्यूंकि वह उनकी बेटी थी,
कुछ पडोसी रोये क्यूंकि यह एक बड़ा ही बेहूदा नियम है,

पर मेरे पापा रोये? नहीं - पर वह तो उनके बेटे हैं?
पर मेरी मम्मी रोयी नहीं - पर वह तो उनकी बहु हैं?
पर मैं रोया ? नहीं - पर मैं तो उनका पोता हूँ?
पर क्या दादाजी रोये? नहीं

दादाजी इसलिए नहीं रोये क्यूंकि उन्हें आत्मिक ज्ञान था,
दूसरा, नब्बे वर्ष की आयु में रोना, आयु का अपमान था,

पर मम्मी पापा क्यों नहीं रोये?
शायद इसलिए के उन्होनें अपने हिस्से के आंसू उनसे समय से पहले ही छीन लिए थे,

जो वस्तु, जो इंसान, जो जानवर हमें एक अंश भी सहारा, एक अंश भी प्यार, एक अंश भी छाया देता है,
वह अपने लिए कुछ अश्रु बटोरने में अवश्य सफल होता है,
और यह आंसू आँखों को जलाते नहीं सहलाते हैं,

बस यही अंतर था मेरी दादी के उन पिछले अश्रुओं का,
जिन्होनें आँखों को इस कदर जलाया था के उनमें गीलेपन की सम्भावना ही नहीं थी,

मेरे न रोने का कारण कोई दिल की पीड़ा नहीं थी,
किसी की मौत के वक़्त मौजूद होना, यह मेरा पहला अनुभव था,
और मेरे पड़ोसियों से अब तक मुझे शिक्षा नहीं मिली थी,

दुनिया में कोई भी मरे तो आप रोते तो नहीं हैं,
आप के घर के सामने वाला घर ढह जाए तो आप रोते तो नहीं हैं?
एक खिलौना जो दूकान के शीशे के पीछे है, मेरा नहीं है, वह टूट जाए तो मैं रोऊंगा तो नहीं?
अब मैं सीधे कैसे कह दूँ के दादी के साथ मेरा रिश्ते के आलावा कोई सम्बन्ध ही नहीं था, तो मैं....

ज़िंदादिल उनहें कहते हैं जो हँसते हुए अलविदा कहते हैं, और ज़िन्दगी उसे कहते हैं जो जीवन भर हंसाये और जाते वक़्त रुलाये,

ज़िंदादिल होना कठिन है और उस पर सदा जोर नहीं चलता,
ज़िन्दगी जिना आसान है, और जो ज़िन्दगी जी लेते हैं वह स्वयं  ही ज़िंदादिल हो जाते हैं.

Ara, June 4, 2001






शादी न करूँ?

नहीं नहीं मैं लड्डू खा के पछताने से नहीं डरता,
एक लड़की है जिस से मेरा जी नहीं भरता. 

पर हर कुछ दिनों में मेरे मन में यह सवाल है उमड़ता,
के मैं औरों के लिए कुछ क्यूँ नहीं करता.

गोबिंद, चाणक्य, चे, भगत का अंश मुझे लगता है मेरे अंदर है फलता,
पर शादी कर के इस पथ पर क्या मैं पाउँगा विफलता?

पहले मैं सोचता था हाँ, पर आज एक नया सुराग है मिलता,
जब कूद पड़ने का वक़्त आएगा तो रास्ता खुद खुल जायेगा.

गोबिंद का बच्चों से, चाणक्य का पिता चरक से, 
भगत का अपनी होनें वाली से भी तो लगाव था.

इसका अभिप्राय?

मेरे प्यारे मेरा बल हैं....... पर बिन इनके मैं और भी बलवान हूँ.

प्यार के रूप भीषण हो सकते हैं - कोमल भी और कठोर भी.....

जब जीवन का वो मोड़ आएगा ..... तो प्यार का उपयोक्त रूप खुद- ब- खुद काम आ जायेगा.

फिलहाल के लिए ---- शादी पक्की.

April 2011

Tuesday, December 22, 2015

आज वह भी खफा है!

गहराई की भी उंचाई देखता हूँ,
लू में भी ठंढाई पाता हूँ,
अकेलेपन में भी भीड़ लगती है,
जब - वह मेरे संग होती है.

रूठों को मनाने की छमता रखता हूँ,
हर गुथी को सुलझाने की कोशिश करता हूँ,
विश्व तक को बेहतर बनाने की शक्ति है,
जब - वह मेरेसंग होती है.

दूर रह कर भी वह मेरेसंग है,
कोई गम नहीं , हर पल उमंग है,
बिन तपस्या भी मेरा मन उसके संग है,
प्रेम का यही  तो ढंग है.

पर आज वह मुझसेखफा है,
आज कु छ ज्यादा ही खफा है,
खफा होना आसान नहीं,
खुद को सजा देना आसान नहीं,
- पर आज वह मुझसे खफा है.

ऐसा लगता है- आवाज़ें बंद हो गयीं,
भीड़ अचानक कम हो गयी,
मेरी दिशा कहीं लुप्त हो गयी,
कल की आस भी कम हो गयी.

मना तो मैं लूँगा - मान तो वह जायेगी,
पर - कु छ बेहतरीन पल ज़िन्दगी में से छंट गए,
पर उसकी अहमियत फिर जता गए,
 उस पर कितना बोझ है,
मेरी पूरी दुनिया का एक वही बोध है.

पर आज मेरी दुनिया खफा है,
क्यूंकि आज वह खफा है.

Hyderabad, March 2010

हर तरक्की फीकी नज़र आती है।

क्यूँ आज के इस दौर में हर तरक्की फीकी नज़र आती है।
सबसे बड़ी गाड़ी भी छोटी नज़र आती है।
हर चीज़ प्रतिशत में मापी जाती है।
और हर सुख सुविधा की मौजूदगी में हंसी गायब हो जाती है।

जगजीत कह गए पर कहाँ घर बनते हैं घरवालों से।
सिमित हैं हम दीवारों, काँचों और यंत्रों से।
कुछ तो इंसानी फितरत है जो युगों से चली आई है।
और कुछ बीमारियां यह खुली सूचना भी लायी है।

हर कुछ खुला है, मन भी तन भी साधन भी।
गरीब तो देखकर दंग है, तक़रीबन सबकी शान्ति भंग है।

क्या करें ?

सब खुला है तो अपनी आँखें बंद कर लें।
दूसरों को छोड़ कुछ अपने आप को पढ़ लें।
अपनी आकांक्षाएं सीमित कर लें।

और अपनी उपलब्धियों के लिए कभी नमन कर लें।

Gurgaon, 2015