जब मेरी दादी पड़ी बीमार, जी चुकी थी वह पच्चासी साल,
जितने डॉक्टर मिले दिखाए, फिर भी कोई न मिला उपाए,
न शुगर, न बीपी, न कोई ऐसा रोग जो बुढ़ापे को मुश्किल बनाये,
उनकी हालत बहुत ख़राब थी, बदन शिथिल अत्यंत कमजोरी,
लेटे रहने से पीठ पे घाव, बीच बीच में कोमा में जाना, और न ही दिखे कोई उपाय।
आखिर वह दिन आ ही गया जो की हमें पता था की आना है,
मेरी बुआ रोई, क्यूंकि वह उनकी बेटी थी,
कुछ पडोसी रोये क्यूंकि यह एक बड़ा ही बेहूदा नियम है,
पर मेरे पापा रोये? नहीं - पर वह तो उनके बेटे हैं?
पर मेरी मम्मी रोयी नहीं - पर वह तो उनकी बहु हैं?
पर मैं रोया ? नहीं - पर मैं तो उनका पोता हूँ?
पर क्या दादाजी रोये? नहीं
दादाजी इसलिए नहीं रोये क्यूंकि उन्हें आत्मिक ज्ञान था,
दूसरा, नब्बे वर्ष की आयु में रोना, आयु का अपमान था,
पर मम्मी पापा क्यों नहीं रोये?
शायद इसलिए के उन्होनें अपने हिस्से के आंसू उनसे समय से पहले ही छीन लिए थे,
जो वस्तु, जो इंसान, जो जानवर हमें एक अंश भी सहारा, एक अंश भी प्यार, एक अंश भी छाया देता है,
वह अपने लिए कुछ अश्रु बटोरने में अवश्य सफल होता है,
और यह आंसू आँखों को जलाते नहीं सहलाते हैं,
बस यही अंतर था मेरी दादी के उन पिछले अश्रुओं का,
जिन्होनें आँखों को इस कदर जलाया था के उनमें गीलेपन की सम्भावना ही नहीं थी,
मेरे न रोने का कारण कोई दिल की पीड़ा नहीं थी,
किसी की मौत के वक़्त मौजूद होना, यह मेरा पहला अनुभव था,
और मेरे पड़ोसियों से अब तक मुझे शिक्षा नहीं मिली थी,
दुनिया में कोई भी मरे तो आप रोते तो नहीं हैं,
आप के घर के सामने वाला घर ढह जाए तो आप रोते तो नहीं हैं?
एक खिलौना जो दूकान के शीशे के पीछे है, मेरा नहीं है, वह टूट जाए तो मैं रोऊंगा तो नहीं?
अब मैं सीधे कैसे कह दूँ के दादी के साथ मेरा रिश्ते के आलावा कोई सम्बन्ध ही नहीं था, तो मैं....
ज़िंदादिल उनहें कहते हैं जो हँसते हुए अलविदा कहते हैं, और ज़िन्दगी उसे कहते हैं जो जीवन भर हंसाये और जाते वक़्त रुलाये,
ज़िंदादिल होना कठिन है और उस पर सदा जोर नहीं चलता,
ज़िन्दगी जिना आसान है, और जो ज़िन्दगी जी लेते हैं वह स्वयं ही ज़िंदादिल हो जाते हैं.
Ara, June 4, 2001
जितने डॉक्टर मिले दिखाए, फिर भी कोई न मिला उपाए,
न शुगर, न बीपी, न कोई ऐसा रोग जो बुढ़ापे को मुश्किल बनाये,
उनकी हालत बहुत ख़राब थी, बदन शिथिल अत्यंत कमजोरी,
लेटे रहने से पीठ पे घाव, बीच बीच में कोमा में जाना, और न ही दिखे कोई उपाय।
आखिर वह दिन आ ही गया जो की हमें पता था की आना है,
मेरी बुआ रोई, क्यूंकि वह उनकी बेटी थी,
कुछ पडोसी रोये क्यूंकि यह एक बड़ा ही बेहूदा नियम है,
पर मेरे पापा रोये? नहीं - पर वह तो उनके बेटे हैं?
पर मेरी मम्मी रोयी नहीं - पर वह तो उनकी बहु हैं?
पर मैं रोया ? नहीं - पर मैं तो उनका पोता हूँ?
पर क्या दादाजी रोये? नहीं
दादाजी इसलिए नहीं रोये क्यूंकि उन्हें आत्मिक ज्ञान था,
दूसरा, नब्बे वर्ष की आयु में रोना, आयु का अपमान था,
पर मम्मी पापा क्यों नहीं रोये?
शायद इसलिए के उन्होनें अपने हिस्से के आंसू उनसे समय से पहले ही छीन लिए थे,
जो वस्तु, जो इंसान, जो जानवर हमें एक अंश भी सहारा, एक अंश भी प्यार, एक अंश भी छाया देता है,
वह अपने लिए कुछ अश्रु बटोरने में अवश्य सफल होता है,
और यह आंसू आँखों को जलाते नहीं सहलाते हैं,
बस यही अंतर था मेरी दादी के उन पिछले अश्रुओं का,
जिन्होनें आँखों को इस कदर जलाया था के उनमें गीलेपन की सम्भावना ही नहीं थी,
मेरे न रोने का कारण कोई दिल की पीड़ा नहीं थी,
किसी की मौत के वक़्त मौजूद होना, यह मेरा पहला अनुभव था,
और मेरे पड़ोसियों से अब तक मुझे शिक्षा नहीं मिली थी,
दुनिया में कोई भी मरे तो आप रोते तो नहीं हैं,
आप के घर के सामने वाला घर ढह जाए तो आप रोते तो नहीं हैं?
एक खिलौना जो दूकान के शीशे के पीछे है, मेरा नहीं है, वह टूट जाए तो मैं रोऊंगा तो नहीं?
अब मैं सीधे कैसे कह दूँ के दादी के साथ मेरा रिश्ते के आलावा कोई सम्बन्ध ही नहीं था, तो मैं....
ज़िंदादिल उनहें कहते हैं जो हँसते हुए अलविदा कहते हैं, और ज़िन्दगी उसे कहते हैं जो जीवन भर हंसाये और जाते वक़्त रुलाये,
ज़िंदादिल होना कठिन है और उस पर सदा जोर नहीं चलता,
ज़िन्दगी जिना आसान है, और जो ज़िन्दगी जी लेते हैं वह स्वयं ही ज़िंदादिल हो जाते हैं.
Ara, June 4, 2001